कबीर साहिब

   कक्का केवल नाम है, बब्बा बरन शरीर,
         रर्रा सब में रम रहा, तिसका नाम कबीर।   

(शुद्ध चेतना जिसका वास्तविक अस्तित्व पांच तत्वों, मन और शरीर से परे है जो, हर जीवित प्राणी में मौजूद है। उसे ही कबीर की संज्ञा दी गया है।)


कबीर साहिब पहले संत सतगुरु थे। परमपिता ने स्वयं को मंथन करके कबीर साहिब की रचना की थी इसलिए कबीर साहिब और कुछ नहीं बल्कि स्वयं परमपिता का सार थे। उनके पास हम लोगों की तरह एक भौतिक शरीर नहीं था, वे एक शुद्ध चेतना थे जो मन और शरीर से परे था। कबीर साहिब जून महीने में पूर्णिमा के दिन १३ तारीख को (ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा) वर्ष १३९८ में काशी के लहरतारा तालाब में एक इंसान के रूप में धरती पर आये।

लहरतारा तालाब में आकाश से एक चमकदार सफेद रोशनी एक कमल के फूल पर उतरी और उसने एक बच्चे का रूप ले लिया। उस समय अष्टानंदजी (स्वामी रामानंदजी के शिष्य) तालाब के पास ध्यान कर रहे थे। अष्टानंदजी बहुत चकित हुए और उन्होंने अपने गुरु स्वामी स्वामी रामानंदजी को पूरी घटना बताई। इस घटना के बारे में सुनकर, स्वामी रामानंदजी ने कहा कि दुनिया को जल्द ही इस बच्चे के बारे में पता चलेगा और वे सही में "संत सम्राट सतगुरु कबीर साहिब" नाम से दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गए। कबीर साहिब सत्य भक्ति का प्रचार करने धरती पर आए अर्थात लोगों में परमपिता के प्रति समर्पण और आत्माओं को जागृत कराने, ताकि वे ८४ लाख योनियों में पुनर्जन्म के बजाय इस संसार सागर से निर्वाण प्राप्त कर सकें।

१२० वर्षों तक उन्होंने सभी धर्मों में प्रचलित मिथकों के खिलाफ आवाज़ उठाई और उपदेश दिया कि एक सच्चे सतगुरु से सार नाम प्राप्त किए बिना निर्वाण नहीं मिल सकता। कबीर साहिब ने ब्रह्मांड के तथाकथित "भगवान" के सभी रहस्यों का खुलासा किया, जो कोई और नहीं बल्कि मन (निराकार मन / निरंजन / काल पुरुष) है। उन्होंने समझाया कि सभी धर्म किसी न किसी तरह से "निराकार ईश्वर" की आराधना कर रहे हैं अर्थात् सरगुन में मूर्ति पूजा के रूप में और निर्गुण (निराकार) में ५ योगिक मुद्राओं के रूप में। उन्होंने मानवता को अमरलोक (परम लोक/ चौथा लोक / अमर निवास) का रहस्य भी दिया, जो तीनों लोक - स्वर्ग, नर्क और पृथ्वी (त्रिलोक) से परे है। उनकी शिक्षाओं ने कई आध्यात्मिक गुरुओं को परेशान किया और वे उनके कट्टर प्रतिद्वंदी बन गए। उन्हें ५२ बार मौत की सजा दी गई जिसे "बावन कसनी" के नाम से जाना जाता है, लेकिन वे हर बार बच गए। उन्हें बदनाम करने के लिए उनके बारे में झूठ फैलाया गया। कुछ ने उन्हें एक अविवाहित ब्राह्मण लड़की की संतान बताया, दूसरों ने कहा कि उनकी शादी लोई से हुई थी और उनका एक बेटा और एक बेटी थी - कमाल और कमाली जबकी वास्तव में उनके भौतिक शरीर ही नहीं था। उन्होंने यह अपनी मृत्यु में भी साबित किया।

मगहर में वर्ष १५१८ में, कबीर साहिब ने घोषणा की कि वह माघ सुदी एकादशी (लोहड़ी त्योहार के अगले दिन जनवरी में पड़ने वाले शुभ दिन) को प्रस्थान करेंगे। कबीर साहिब के भक्तों के साथ आम जनता उनके प्रस्थान की तिथि पर मगहर में एकत्रित हुई। हिंदू और मुसलमान दोनों ने उनके पार्थिव शरीर पर दावा किया लेकिन उनके समाधि के ऊपर से पर्दा हटने के बाद उनका कोई शरीर नहीं मिला। केवल कमल के फूल पाए गए जो दोनों समुदायों नें आपस में बाँट लिए और उन्हें अपने धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार किया। निम्नलिखित उद्घोष उस समय हुई जब सतगुरु कबीर साहिब ने अपना शरीर छोड़ा:

   उठाओ पर्दा, नहीं है मुर्दा।
        ऐ रे मूरख नादाना, तुमनें हमें नहीं पहचाना।    

(पर्दा उठाओ और देखो, इसके नीचे कोई शव नहीं है। यह तुम्हारी मूर्खता है कि तुमने मेरी वास्तविकता को नहीं जाना)


अविगत से चला आया, भेद मर्म ना पाया,
ना हमरे कोई मात पिता हैं, ना हमारे भाई बंधु हैं,
न गिरही न दासी, नीरू के घर नाम धराया जग में हो गयी हांसी,
आठों तकिया अंग हमारे, अजर अमरपुर डेरा,
हुकुम हैसियत से चला आया, कोई भेद मरम न पाया।    

कबीर साहिब ने अपने जन्म और जीवन का निम्नलिखित शब्दों में वर्णन किया है: "मैं इस धरती पर आसमान से शुद्ध सफेद प्रकाश के रूप में सीधे परमपिता के निवास सतलोक से उतरा और कोई भी मेरी वास्तविक पहचान नहीं जान सका। मैं माँ की कोख से पैदा नहीं हुआ - एक बच्चे के रूप में आया। एक बुनकर नीरू ने मुझे काशी के लाहतारा तालाब में पाया। मेरी न तो कोई पत्नी है और न ही कोई और रिश्तेदार। मेरा नामकरण संस्कार नीरू के घर पर ही हुआ। इसकी वजह से मैं पूरी दुनिया में एक हंसी का पात्र बन गया। मैं अमरलोक का निवासी हूँ और मैं परमपुरुष की इच्छा के अनुसार काल निरंजन (मन) से आत्माओं को मुक्त कराने के लिए और उनको उनके वास्तविक घर 'अमरलोक' वापस ले जाने के लिए आया हूं"।